रविवार, 4 जनवरी 2015

Kyuin

                                     क्यों
      हमेशा की तरह हम दोनों नन्द भौजाई माॅर्निंग वाक पर सुबह 5ः00 पर निकल पड़े। रोज की अपेक्षा आज शायद बीस मिनट जल्दी थी। सड़क पर चहल पहल न थी। सन्नाटा पसरा था। 5ः30 पाॅंच तक तो टहलने वालों की भीड़ दिखाई पड़ने लगती थी। कि अचानक सामने से दुबली पतली काया आती दिखाई पड़ी। स्पष्ट रूप से नही पहचान पा रही थी। तेजी से हमारे कदम बढ़ रहे थे ब्रिस्क वाक् कि अचानक कदम ठहर गये अरे मीना। तुम क्या तुम भी माॅर्निंग वाक कर रही हो? रूक गयी वह उदास थकी हुई, सुस्त लगा कि रात भर सोई न हो। क्या हुआ तबियत ज्यादा खराब है? कल तुम आई नहीं इसलियें क्या हुआ? इतनी सुबह-सुबह।
         हाॅ मीना! मेरी कामवाली बाई! एकदम सपाट स्वर में पथराई आॅखों से देखते हुए बोली चली गई, चली गई माता जी! क्या? क्या कह रही हो? डेथ हो? गई क्या? हाॅ कल दोपहर में घर में कोई था या नहीं? वह तो अकेले रह रही थी? बहू बेटा तो बम्बई गये है न? हाॅ क्या हो गया था? आस पड़ोस ने हेल्प नही किया? नहीं।
दो दिन से तो मैं नहीं गई थी दीदी मेरी तबियत जो खराब थी। कल गई थी तो हालत बहुत खराब थी। डायरिया -- लैट्रिन हो रहा था ले जाने की हालत नही थी। किसी तरह बम्बई फोन लगाया तो उन्होंने कहा डाक्टर के यहाॅं ले जाओं ले जाने वाली हालत नही थी।
      कुछ बोल रही थी? मैने पूछा! नहीं बस कस कर मेरा हाथ पकड़े थी और एक टक मुझे देख रही थी। मानों कह रहीं हो मुझे छोड़ कर मत जाओं और फिर बस देखते-देखते उड़ गये प्राण पखेरू।
    पाँच बेटियाँ, दो बेटे बहू, पोते उनकी बहुयें मगर ऐसी भयानक मौत। पास में कोई दिया जलाने वाला भी नहीं दीदी कल दोपहर से रात सुबह अभी तक मै ही तो थी अभी किसी को बुलाकर कह दिया और अगरबत्ती जला देना। मै नहा धोकर आती हँू वही इतनी सुबह घर जा रही हूँ नहाने खाने भइया जी हवाई जहाज से चल दिये है फिर भी शोम से पहले तो नही पहुँचेंगे।
   मेरे आँखों से आँसू गिरने लगें। कौन सा अव्यक्त स्नेह था जो मुझे उनसे जोड़ गया था मेरी कामवाली मीनू ही शायद माता जी और मेरे बीच की सम्पर्क सूत्र थी। जब मेरे लिये रोटियाँ सेकती। झाड़ू पोछा लगाती तो माता जी के बारे में चश्मा जरूर करती। कई सालों से उनके यहाॅं काम कर रही थी। अस्सी के ऊपर की यह माता जी नितप्रति अपने घर में कोहराम मचाया करती। अपनी बहू को गन्दी-गन्दी गालियाँ और अपशब्द कहतीं। किसी की न सुनती। और उनकी बहू भी अब नई नवेली बहू न थी। स्वयं उनके भी दो बेटे बहुये और बेेटी दामाद थे। मगर घर की बड़ी बुजुर्ग माता जी की जबान, उस पर कोई भी नियंत्रण नहीं रखवा सका था। नित्य प्रति के कठोर शब्दों उदण्ड व्यवहार और क्रोधी स्वभाव ने उन्हे घर में ही सबसे अलग थलग कर दिया था। जब घर मे स्नेह प्यार न था तो आस पड़ोस से क्या होते। जब चाहा अपनी गठरी मठरी या प्लास्टिक का थैला उठाती बिना किसी को बताये रिक्शा पकड़ती और पहुँच जाती आर्यसमाजमन्दिर, या कहीं जा उनका मन करता खोज मचाती बेटा दौड़ता मना कर समझाया बुझा कर लाता। पाक सफाई धूत छात इतनी कि किसी का काम पसन्द न आता। स्वयं ही नौकरानी से आटाछीन कर रोटी सेकती, खिचड़ी खाती बनाती। कोई कुछ न बोलता।
    इन सारी घटनाओं की खबर भी मुझे मीनू ही देती। यह भी उसने ही बताया कि भैया जी और बहू जी बम्बई अपने बेटे के पास गये है एक दो महीने के लिये --उनका बेटा बहुत परेशान है। बहू अपने घर का सारा सामान जेवर पैसा लेकर अपने पिता के साथ मैके चली गई। जब भैया जी आॅफिस गये थे तभी। टिकट वगैरह सब पहले से बुक करा रखा था भैया जी को कुछ नही मालूम था। पिता उसके आये उनके आॅफिस जाते ही टैक्सी बुलाई और पिता बेटी अपने घर लखनऊ। बहुत सुन्दर बहू है दीदी--- डाॅक्टर है डाॅक्टर मगर ऐसा क्यों।
     इकलौती थी पता नही क्या बात हुई डाइवोस का केश चल रहा है।
 माता जी को ले जानाा चाहिए था? किसके भरोसे छोड़ गई किसके क्या? मुझसे कह गई है? देख लेना खाना बना देना? ज्यादा तंग करेंगी तेा छोड़ देना अपने आप बनायेंगी खायेंगी?
   मगर दीदी मुझसे नही होता अगर कुछ बोलती हूँ तो मैं सोचती हूँ बूढ़ी है बड़बड़ाती है? इस कान से सुन कर निकाल देती हूँ। फिर भी किसी को रखकर तो जाती। मगर अब क्या------                                                 

Sardiyuun ki dhuup

                 सर्दियों की धूप                       
सर्दियों की धूप
कुनमुनी-सी गुनगुनी सी धूप
मेरे घर आंगन की धूप
कभी झांकती उपर नभ से
कभी घूम जाती मुंडेर पर
मेरे घर आंगन की धूप
और कभी खिल-खिल, ठिलठिलकर
अकड़ दिखाती, ढ़ीठ बनी
छा जाती तन पर-----
मेरे घर आंगन की धूप
अहा! सुनहली, कभी रूपहली
कभी लालिमा लिये हुये
पोर-पोर को कर आहलादित
मेरे घर आंगन की धूप।
प्यारी कुनमुन, शान्त मनोहर
मेरे घर आंगन की धूप।।
कुनमुनी सी गुनगुनी सी
मेरे घर आंगन की धूप।

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

छा जाउंगा

मुझे डूबता सूर्य न समझो
नई ऊर्जा लेकर मैं फिर आ जाउंगा
कल नभ पर मैं जोर शोर से छा जाउंगा.
कण कण है मेरा आह्लादित
सतरंगी हैं किरणें मेरी,
जीवन देतीं ,राह दिखाती ।
मुझे देख कर हंसती गाती ,
मुझे डूबता सूर्य न समझो .
नई ऊर्जा लेकर मैं फिर आ जाऊँगा।
खिल जायेंगे फूल मनोहर ,
खुल जायेंगी आँखे चंचल
तितली , भंवरे, डोलडोल कर ,
पक्षी के कलरव पर प्रतिपल
नाच उठेंगी ,थिरक उठेंगी ,
नदियाँ छल -छल ....
मुझे डूबता सूर्य न समझो .

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

क्या सारा दोष मीडिया का ही है?

परिवर्तन सृष्टि का नियम है.चलते रहना जीवन और रुक जाना मृत्यु .समाज के विकास में भी यही नियम है .मान्यताएं बदलती हैं ,आवश्यकता के अनुसार विचार बदलतें हैं .सोच और दिशायें बदलतीं हैं .नहीं बदलतें हैं तो शाश्वत नैतिक मूल्य .नैतिक मूल्यों उनके व्यवहारिक प्रयोग में निरंतर गिरावट देखी जा रही है । माता - पिता , परिवार के सदस्य , विद्यालय -अध्यापक ,शिक्षा शास्त्री सब हैरान परेशान हैं । मौखिक रूप में हर आदमी अपने -अपने स्तर पर दया करुना ,परोपकार , भाई चारा ,प्रेम , आदर ,सम्मान -सहयोग आदि के बारे में समझातें रहतें हैं .लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं .जितना नैतिक शिक्षा पर बल दिया जा रहा है लोग सतर्कता और सावधानी बरत रहे हैं उतने ही भयानक और विपरीत प्रभाव हमें दिखाई पद रहे हैं ।
क्या है इसका कारण ? कहाँ हम चूक रहे हैं ? कौन है जिम्मेदार ? कौन सी चीजें हमें पतन की ओर
खींच रहीं हैं ?सभी अपने- अपने दायित्यों को सही बता कर मीडिया पर ही दोष दे रहें हैं .क्या सारा दोष मीडिया का ही है?मीडिया वही तो दिखा रहा है जो समाज देखना चाहता है .समस्या कहाँ क्या कोई बता सकेगा ?

गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

नव वर्ष

बीता वर्ष , गया संघर्ष
नूतन वर्ष .मनाओ हर्ष
खुशियों की सौगात लिए
कलियों की बारात लिए
रंग बिरंगे फूल खिलें हैं
उपवन उपवन हिलें मिलें हैं ,
आशाओं से झूम रहा मन ,
कितनें सपनें देख रहा मन ।
नन्हीं छोटी खुशियाँ अपार
देख सकें यदि आर पार
कैसा भी भी हो मन का विकार
जगमग जगमग हर प्रकार
पुलकित अंग अंग ,मन की उमंग
झिलमिल ,झिलमिल हर तरंग .
नूतन वर्ष , मनाओ हर्ष .

रविवार, 26 दिसंबर 2010

एयर फ़ोर्स का फ़ोर्स

चेन्नई के ऐरफोर्स स्टेशन में, सर्दी की छुट्टियाँ ,
बालकनी में खड़ा मैं देख रहा था,
कालोनी की गतिविधियाँ ,
अनुशाशन में खड़े ऊंचें लम्बे पेड़ों की कतारें ।
शांत, नीरव, सजी साफ़ सुथरी सडकें ,
सजे धजे एक से बंगले हर के बंगले सामने ,
छोटी बड़ी चमकती कारें,स्कूटरें
भोर से सुबह, सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम,
शाम से रात, गुज़रती रही आँखों के सामने से कायनात ।
स्कूल, बच्चे, जिम, मोर्निंग -ईवनिंग वाक्
बौंसिंग, ठहाके, जानदार पार्टियाँ, हँसी -ठिठोल
आकाश में उड़ते जहाज़ों की
आसमान को छू लेने ललक ,
नीचे घरों में जाँबांजों के साथ मिले
पलों को भर पूर जी लेने की चहक
ऐरफोर्स स्टेशन में योध्हा एक नहीं है
उनका पूरा परिवार है, एक सीमा पर तैनात,
एक आकाश में उड़ाने का अभ्यास करता है
तो दूसरा नीचे अपने साहस से हौसला बढ़ाता है
वीरांगनाओं के फ़ोर्स से ही ऐरफोर्स चलता है


Hats off to all families of Air Force
They are different, their courage makes them different and this makes a great difference
That is Air Force

शनिवार, 27 नवंबर 2010

बचपन के वे प्यारे दिन

जीवन में वे प्यारे दिन हैं जो फिर लौट कर नहीं आते .आती हैं उनकी यादें .माता पिता का प्यार दुलार और मस्ती। अपनी जिदें ,,गुस्सा होना ,लोटना , माँ क आँचल पकड कर न छोड़ने का सरल आग्रह .डांट फटकार,उनका मनाना ,दुलारना , भाई बहनों की नोकझोंक । आँखें बंद कीजिये और देखिये अनेक भौतिक सुविधाओं की कमी के बीच आपकी आँखों में बचपन क कौन सा चित्र उभर रहा है ? बचपन यानी जीवन के शुरू के दस वर्ष ,
आज बाल दिवस के अवसर पर मैं उन सब लोंगों से बात करना चाहती हुईं जो किसी न किसी रूप में नन्हें मुन्ने छोटे बच्चों से जुड़ें हैं .मैंने भी एक लंबा जीवन जिया है .अक्सर सोचतीं हूँ कहाँ खो गया है उनका बचपन ?कहाँ चली गई है उनकी वह बेफिक्री ? वह भोलापन , कहाँ चली गई है वह चंचलता ?
मुझे तो लगता है वीडियो ,रेडियो , फिल्मों , किती पार्टियों ,अपने अहम की तुष्टि के लिए माता पिता दोनों की घर से बाहर निकल कर की जाने वाली नौकरियों ने उनके बचपन के इर्द -गिर्द Aइसी लोहे की दीवार खींच दी है की वह नन्हा सा बचपन उसमें अपना दम तोड़ रहा है । माता पिता उसे देख नहीं पा रहे हैं .उनकी तड़प समझ नहीं पा रहे हैं .वे समझतें हैं की बच्चों की मांगें पूरी कर देना ही प्यार है .बड़े से दादे महंगें उपहार ,सुविधाएँ प्रदान कर देना ही प्यार है । लेकिन ऐसा नहीं हैं .बड़े हो कर वह ये सब बातें भूल जाता है .याद रहता है तो केवल माता पिता का सानिध्य . उनके साथ बिताया हुआ समय । साथ बैठ कर ,लेट कर कहानियों का सुनना ,प्यार से गोद में उठाना ,हृदय से लगाना , लाड करना . ये सब उन्हें भावात्मक रूप से मजबूत बनाता है ।
ज़रा गौर से सोचिये ---एक पल शांत होकर बैठिये --कौन देख रहा है उनका बचपन ?कौन झुला रहा है उनको झूले ?कौन सुना रहा है उनको लोरियां ?कहानियां ?कौन बन रहे है उनके मित्र ?---आया ,,नौकर .टेलीविजन ,फिल्मी गाने ?ये संस्कार डालने के दिन हैं जो केवल आप दे सकतें हैं हॉस्टल और करेश नहीं। उन्हें जरूरत बाल मेलाओं की नहीं है जो साल में एक बार आता है .उन्हें जरूरत ढेरों पैसे लुटा कर अपने अहम को संतुष्ट करने की नहीं है .बहुत कम दिन हैं सिर्फ शुरू के दस वर्ष बचपन के दिन । ये वे मजबूत धागें हैं जो जीवन भर के उसे आपको जोड़ देतें हैं भावनाओं के उस अटूट बंधन में जो सात समंदर पार से भी उसे आप तक खींच लायेंगे .आप क्या ये थोडा सा समय दे पायेंगे ?