जीवन में वे प्यारे दिन हैं जो फिर लौट कर नहीं आते .आती हैं उनकी यादें .माता पिता का प्यार दुलार और मस्ती। अपनी जिदें ,,गुस्सा होना ,लोटना , माँ क आँचल पकड कर न छोड़ने का सरल आग्रह .डांट फटकार,उनका मनाना ,दुलारना , भाई बहनों की नोकझोंक । आँखें बंद कीजिये और देखिये अनेक भौतिक सुविधाओं की कमी के बीच आपकी आँखों में बचपन क कौन सा चित्र उभर रहा है ? बचपन यानी जीवन के शुरू के दस वर्ष ,
आज बाल दिवस के अवसर पर मैं उन सब लोंगों से बात करना चाहती हुईं जो किसी न किसी रूप में नन्हें मुन्ने छोटे बच्चों से जुड़ें हैं .मैंने भी एक लंबा जीवन जिया है .अक्सर सोचतीं हूँ कहाँ खो गया है उनका बचपन ?कहाँ चली गई है उनकी वह बेफिक्री ? वह भोलापन , कहाँ चली गई है वह चंचलता ?
मुझे तो लगता है वीडियो ,रेडियो , फिल्मों , किती पार्टियों ,अपने अहम की तुष्टि के लिए माता पिता दोनों की घर से बाहर निकल कर की जाने वाली नौकरियों ने उनके बचपन के इर्द -गिर्द Aइसी लोहे की दीवार खींच दी है की वह नन्हा सा बचपन उसमें अपना दम तोड़ रहा है । माता पिता उसे देख नहीं पा रहे हैं .उनकी तड़प समझ नहीं पा रहे हैं .वे समझतें हैं की बच्चों की मांगें पूरी कर देना ही प्यार है .बड़े से दादे महंगें उपहार ,सुविधाएँ प्रदान कर देना ही प्यार है । लेकिन ऐसा नहीं हैं .बड़े हो कर वह ये सब बातें भूल जाता है .याद रहता है तो केवल माता पिता का सानिध्य . उनके साथ बिताया हुआ समय । साथ बैठ कर ,लेट कर कहानियों का सुनना ,प्यार से गोद में उठाना ,हृदय से लगाना , लाड करना . ये सब उन्हें भावात्मक रूप से मजबूत बनाता है ।
ज़रा गौर से सोचिये ---एक पल शांत होकर बैठिये --कौन देख रहा है उनका बचपन ?कौन झुला रहा है उनको झूले ?कौन सुना रहा है उनको लोरियां ?कहानियां ?कौन बन रहे है उनके मित्र ?---आया ,,नौकर .टेलीविजन ,फिल्मी गाने ?ये संस्कार डालने के दिन हैं जो केवल आप दे सकतें हैं हॉस्टल और करेश नहीं। उन्हें जरूरत बाल मेलाओं की नहीं है जो साल में एक बार आता है .उन्हें जरूरत ढेरों पैसे लुटा कर अपने अहम को संतुष्ट करने की नहीं है .बहुत कम दिन हैं सिर्फ शुरू के दस वर्ष बचपन के दिन । ये वे मजबूत धागें हैं जो जीवन भर के उसे आपको जोड़ देतें हैं भावनाओं के उस अटूट बंधन में जो सात समंदर पार से भी उसे आप तक खींच लायेंगे .आप क्या ये थोडा सा समय दे पायेंगे ?
शनिवार, 27 नवंबर 2010
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